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रविवार, 5 मई 2024

भारत, संविधान



विमर्श : भारत का संविधान 
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संविधान निर्माता कौन?
आजकल भारत की हर उपलब्धि का श्रेय सरकार का प्रमुख होने के नाते मोदी जी को दिया जाता है । उसे तरह संविधान सभा का अध्यक्ष होने के नाते संविधान निर्माता डॉ. राजेन्द्र प्रसाद जी को कहा जाना चाहिए।
माँग 
इस समिति का मुख्य उद्देश्य भारत के संविधान का मसौदा तैयार करना था जो देश को एक प्रभुत्व का दर्जा देता है। १९३४ में एम.एन.रॉय जो एक भारतीय मार्क्सवादी क्रांतिकारी, राजनीतिक सिद्धांतकार और दार्शनिक थे, ने संविधान सभा का विचार दिया। भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस ने इस विचार को परिष्कृत किया और १९३५ में इसे आधिकारिक माँग बना दिया जिसे अंग्रेजों ने अस्वीकार कर दिया था। चक्रवर्ती राजगोपालाचारी ने १५ नवंबर १०३९ को संविधान सभा के गठन के लिए अपनी आवाज उठाई। इसे अंग्रेजों ने अगस्त १९४० में स्वीकार कर लिया।
गठन 
१९४६ में ब्रिटिश राज से भारतीय राजनीतिक नेतृत्व को सत्ता हस्तांतरित करने के उद्देश्य से कैबिनेट मिशन भारत आया। इस मिशन के तहत पहली बार संविधान सभा के चुनाव हुए। संविधान सभा के सदस्यों का चुनाव प्रांतीय सभाओं द्वारा किया जाता था। चुनाव एकल, हस्तांतरणीय-वोट प्रणाली के रूप में थे। संविधान सभा की अंतिम संरचना इस प्रकार है:

* २९२ सदस्यों ने प्रांतों के प्रतिनिधियों के रूप में कार्य किया।

* ९३ सदस्य रियासतों का प्रतिनिधित्व करते थे।

* ४ सदस्य अजमेर-मेवाड़, दिल्ली, कूर्ग और ब्रिटिश बलूचिस्तान प्रांतों के मुख्य आयुक्त के रूप में मनोनीत थे।

इस प्रकार, सभा की कुल सदस्य संख्या ३८९ थी। इस चुनाव के बाद संविधान की योजना सुचारु रूप से नहीं चल पाई क्योंकि मुस्लिम लीग ने भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस के साथ सहयोग करने से इनकार कर दिया। हिंदू-मुस्लिम के बीच दंगे शुरू हो गए और मुस्लिम लीग ने भारत में रहने वाले मुसलमानों के लिए अपनी संविधान सभा की माँग की।
पुनर्गठन 
१५ अगस्त १९४७ कोभारत-पाकिस्तान विभाजन तथा भारत की आजादी के बाद ९ दिसंबर १९४६ को संविधान सभा की पहली बैठक १४ अगस्त १९४७ को एक संप्रभु निकाय के रूप में हुई। विभाजन के कारण संविधान सभा के लिए नए चुनाव हुए और सदस्यों की संख्या घटकर २९९ रह गई। डॉ. राजेंद्र प्रसाद संविधान सभा के अध्यक्ष थे। संविधान निर्माण की प्रक्रिया को तेज करने के लिए संविधान सभा ने कई समितियाँ बनाईं। प्रारूप समिति ने संविधान के निर्माण में प्रमुख भूमिका निभाई। इस समिति के अध्यक्ष डॉ. भीमराओ अंबेडकर तथा ६ सदस्य एन. माधव राव, टी.टी. कृष्णामाचारी, डॉ. कन्हैया लाल माणिकलाल मुंशी, सैयद मोहम्मद सादुल्लाह, एन. गोपालस्वामी अयंगर तथा अल्लादी कृष्णास्वामी अय्यर थे।
तैयारी 
भारत सरकार के संवैधानिक सलाहकार बी. एन. राव ने पश्चिमी लोकतंत्रों का दौरा कर विभिन्न संविधानों का अध्ययन किया तथा अन्य देशों द्वारा संविधान-मसौदा बनाने की प्रक्रिया जानी। बी. एन. राव ने संविधान के मूल सिद्धांतों को समझ कर नोट्स बनाकर प्रारूप समिति को भेज जिससे उन्हें एक प्रभावी संविधान का मसौदा तैयार करने में मदद मिली। डॉ. बी.आर. अंबेडकर ने लगभग ६० देशों के संविधान का भी अध्ययन किया।
कारक 
कई सदस्यों ने यूरोपीय-अमेरिकी संवैधानिक ढाँचे को प्राथमिकता दी। अन्य सदस्य भारत की अपनी स्वदेशी परंपराओं को ध्यान में रखते हुए एक संविधान का मसौदा तैयार करना चाहते थे। द्वितीय विश्व युद्ध के कारण खाद्यान्न की भारी कमी और देश की आर्थिक एवं सामाजिक वृद्धि में गिरावट आदि ने समिति को राष्ट्रीय सरकार के नियंत्रण के बारे में सोचने पर मजबूर किया। विभाजन, रक्तपात आदि का कारण प्रांतीय कानून कमजोर होना था। तेलंगाना में कम्युनिस्ट विद्रोह ने एक मजबूत केंद्र सरकार की आवश्यकता बताई बाहरी रक्षा और आंतरिक सुरक्षा का प्रबंधन कर सके। राजनीतिक व्यवस्था की संरचना यूरोपीय और अमेरिकी मॉडल से प्रभावित थी। सभा द्वारा लिए गए निर्णय आर्थिक विकास, विभाजन के दौरान सांप्रदायिक हिंसा, औद्योगिक उत्पादकता, कृषि की वृद्धि और शरणार्थियों के बड़े पैमाने पर प्रवाह जैसी कई चिंताओं से प्रभावित थे।
विशेषता 
नागरिकों के मौलिक अधिकारों और राज्य के नीति निदेशक सिद्धांतों का कार्यान्वयन भी संविधान का हिस्सा बन गया। कुल मिलाकर छह मौलिक अधिकार तय किए गए: समानता का अधिकार, स्वतंत्रता का अधिकार, शोषण के खिलाफ अधिकार, धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार, सांस्कृतिक और शैक्षिक अधिकार। संपत्ति, और संवैधानिक उपचारों का अधिकार। निदेशक सिद्धांतों ने यह सुनिश्चित किया कि देश सामाजिक दबाव से मुक्त होगा। सभा ने समुदायों के अधिकारों पर विशेष ध्यान दिया। उपरोक्त उल्लिखित बातों के अलावा संविधान बनाते समय सभा बहुत सारी गरमागरम चर्चाओं और बहसों से गुज़री थी और प्रत्येक सूक्ष्म विवरण पर ध्यान दिया था।
उलेखनीय 
संविधान का मसौदा तैयार करने में तीन साल लगे, जिसमें १६५ दिनों की अवधि में ग्यारह सत्र आयोजित किए गए तथा तैयार किए गए संविधान को प्रस्तावना, ३९५ अनुच्छेद और ८ अनुसूचियों के साथ २६ जनवरी १९५० को लागू किया गया। संविधान संशोधनाओं के कारण वर्तमान में, संविधान में ४७० अनुच्छेद हैं जिन्हें २५ भागों, १२ अनुसूचियों और ५ परिशिष्टों में बाँटा गया है।

* भारतीय संविधान के हिंदी संस्करण का सुलेखन “वसंत कृष्णन वैद्य” द्वारा किया गया था, जिसे नंद लाल बोस द्वारा सुरुचिपूर्ण ढंग से सजाया गया था। संविधान की अंग्रेजी प्रति को प्रेम बिहारी नारायण रायजादा ने हाथों से कैलीग्राफी में इतनी सावधानी पूर्वक लिखा और सजाया था कि एक भी गलती नहीं की थी। संविधान लिखने में ३०३ निब तथा ३५४ बोतल स्याही लगी थी। संविधान की प्रस्तावना पर चित्र सज्जा जबलपुर निवासी ब्योहार राम मनोहर सिन्हा द्वारा की गई थी।

* २४ जनवरी १९५० को भारत के २८४ संसद सदस्यों ने हस्ताक्षर कर संविधान की जिस हस्तलिखित मूल प्रति को अपनाया था, वह नेशनल म्यूजियम नई दिल्ली में सुरक्षित है। ४४८ लेखों और १२ अनुसूचियों युक्त भारत का संविधान, दुनिया के सबसे लंबे संविधानों में से एक है। भारत का संविधान सरकार की संसदीय प्रणाली के साथ देश को राज्यों के एक संघ के रूप में परिभाषित करता है। भारत का संविधान २६ नवम्बर १९४९ को संविधान सभा द्वारा पारित कर २६ जनवरी १९५० से प्रभावी हुआ। इस दिन को भारत में गणतंत्र दिवस के रूप में मनाया जाता है।

* भारतीय संविधान अपने नागरिकों को मौलिक अधिकार प्रदान करता है, जैसे भाषण और धर्म की स्वतंत्रता आदि। भारत विविधताओं वाला एक देश है, जिसमें कई भाषाओं, धर्मों और जातीय समूहों के लोग मिल-जुलकर रहते हैं। भारतीय संविधान २२ आधिकारिक भाषाओं को मान्यता देता है।
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मई ५, छंद जग, नवगीत, विधाता छंद, ओशो चिंतन, लाओत्से, कुमार रवीन्द्र, दोहा दुनिया

 ओशो चिंतन: दोहा मंथन १.

लाओत्से ने कहा है, भोजन में लो स्वाद।
सुन्दर सी पोशाक में, हो घर में आबाद।।
रीति का मजा खूब लो
*
लाओत्से ने बताया, नहीं सरलता व्यर्थ।
रस बिन भोजन का नहीं, सत्य समझ कुछ अर्थ।।
रस न लिया; रस-वासना, अस्वाभाविक रूप।
ले विकृत हो जाएगी, जैसे अँधा कूप।।
छोटी-छोटी बात में, रस लेना मत भूल।
करो सलिल-स्पर्श तो, लगे खिले शत फ़ूल।
जल-प्रपात जल-धार की, शीतलता अनुकूल।।
जीवन रस का कोष है, नहीं मोक्ष की फ़िक्र।
जीवन से रस खो करें, लोग मोक्ष का ज़िक्र।।
मंदिर-मस्जिद की करे, चिंता कौन अकाम।
घर को मंदिर बना लो, हो संतुष्ट सकाम।।
छोटा घर संतोष से, भर होता प्रभु-धाम।
तृप्ति आदमी को मिले, घर ही तीरथ-धाम।।
महलों में तुम पाओगे, जगह नहीं है शेष।
सौख्य और संतोष का, नाम न बाकी लेश।।
जहाँ वासना लबालब, असंतोष का वास।
बड़ा महल भी तृप्ति बिन, हो छोटा ज्यों दास।।
क्या चाहोगे? महल या, छोटा घर; हो तृप्त?
रसमय घर या वरोगे, महल विराट अतृप्त।।
लाओत्से ने कहा है:, "भोजन रस की खान।
सुन्दर कपड़े पहनिए, जीवन हो रसवान।।"
लाओ नैसर्गिक बहुत, स्वाभाविक है बात।
मोर नाचता; पंख पर, रंगों की बारात।।
तितली-तितली झूमती, प्रकृति बहुत रंगीन।
प्रकृति-पुत्र मानव कहो, क्यों हो रंग-विहीन?
पशु-पक्षी तक ले रहे, रंगों से आनंद।
मानव ले; तो क्या बुरा, झूमे-गाए छंद।।
वस्त्राभूषण पहनते, थे पहले के लोग।
अब न पहनते; क्यों लगा, नाहक ही यह रोग?
स्त्री सुंदर पहनती, क्यों सुंदर पोशाक।
नहीं प्राकृतिक यह चलन, रखिए इसको ताक।।
पंख मोर के; किंतु है, मादा पंख-विहीन।
गाता कोयल नर; मिले, मादा कूक विहीन।।
नर भी आभूषण वसन, बहुरंगी ले धार।
रंग न मँहगे, फूल से, करे सुखद सिंगार।।
लाओ कहता: पहनना, सुन्दर वस्त्र हमेश।
दुश्मन रस के साधु हैं, कहें: 'न सुख लो लेश।।'
लाओ कहता: 'जो सहज, मानो उसको ठीक।'
मुनि कठोर पाबंद हैं, कहें न तोड़ो लीक।।
मन-वैज्ञानिक कहेंगे:, 'मना न होली व्यर्थ।
दीवाली पर मत जला, दीप रस्म बेअर्थ।।'
खाल बाल की निकालें, यह ही उनका काम।
खुशी न मिल पाए तनिक, करते काम तमाम।।
अपने जैसे सभी का, जीवन करें खराब।
मन-वैज्ञानिक शूल चुन, फेंके फूल गुलाब।।
लाओ कहता: 'रीति का, मत सोचो क्या अर्थ?
मजा मिला; यह बहुत है, शेष फ़िक्र है व्यर्थ।।
होली-दीवाली मना, दीपक रंग-गुलाल।
सबका लो आनंद तुम, नहीं बजाओ गाल।।
***
५-५-२०१८, १८.२०
दोहा मुक्तक
लता-लता पर छा रहा, नव वासंती रंग।
ताल ताल पर ताल दें, मछली सहित तरंग।।
नेह-नर्मदा में नहा, भ्रमर-तितलियाँ मौन-
कली-फूल पी मस्त हैं, मानो मद की भंग।।
५.५.२०१८
कृति चर्चा-
'अप्प दीपो भव' प्रथम नवगीतिकाव्य
चर्चाकार- आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल'
*
[कृति विवरण- अप्प दीपो भव, कुमार रवीन्द्र, नवगीतीय प्रबंध काव्य, आवरण बहुरंगी,सजिल्द जेकेट सहित, आकार २२ से.मी. x १४.५ से.मी., पृष्ठ ११२, मूल्य ३००/-, उत्तरायण प्रकाशन के ३९७ आशियाना, लखनऊ २२६०१२, ९८३९८२५०६२, रचनाकार संपर्क- क्षितिज ३१०, अर्बन स्टेट २ हिसार हरयाणा ०१६६२२४७३४७]
*
'अप्प दीपो भव' भगवान बुद्ध का सन्देश और बौद्ध धर्म का सार है। इसका अर्थ है अपने आत्म को दीप की तरह प्रकाशवान बनाओ। कृति का शीर्षक और मुखपृष्ठ पर अंकित विशेष चित्र से कृति का गौतम बुद्ध पर केन्द्रित होना इंगित होता है। वृक्ष की जड़ों के बीच से झाँकती मंद स्मितयुक्त बुद्ध-छवि ध्यान में लीन है। कृति पढ़ लेने पर ऐसा लगता है कि लगभग सात दशकीय नवगीत के मूल में अन्तर्निहित मानवीय संवेदनाओं से संपृक्तता के मूल और अचर्चित मानक की तरह नवगीतानुरूप अभिनव कहन, शिल्प तथा कथ्य से समृद्ध नवगीति काव्य का अंकुर मूर्तिमंत हुआ है।
कुमार रवीन्द्र समकालिक नव गीतकारों में श्रेष्ठ और ज्येष्ठ हैं। नवगीत के प्रति समीक्षकों की रूढ़ दृष्टि का पूर्वानुमान करते हुए रवीन्द्र जी ने स्वयं ही इसे नवगीतीय प्रबंधकाव्य न कहकर नवगीत संग्रह मात्र कहा है। एक अन्य वरिष्ठ नवगीतकार मधुकर अष्ठाना जी ने विश्ववाणी हिंदी संस्थान जबलपुर द्वारा आयोजित संगोष्ठी में इसे 'काव्य नाटक' कहा है । अष्ठाना जी के अनुसार रचनाओं की प्रस्तुति नवगीत के शिल्प में तो है किन्तु कथ्य और भाषा नवगीत के अनुरूप नहीं है। यह स्वाभाविक है। जब भी कोई नया प्रयोग किया जाता है तो उसके संदर्भ में विविध धारणाएँ और मत उस कृति को चर्चा का केंद्र बनाकर उस परंपरा के विकास में सहायक होते हैं जबकि मत वैभिन्न्य न हो तो समुचित चर्चा न होने पर कृति परंपरा का निर्माण नहीं कर पाती।
एक और वरिष्ठ नवगीतकार निर्मल शुक्ल जी इसे नवगीत संग्रह कहा है। सामान्यत: नवगीत अपने आप में स्वतंत्र और पूर्ण होने के कारण मुक्तक काव्य संवर्ग में वर्गीकृत किया जाता है। इस कृति का वैशिष्ट्य यह है कि सभी गीत बुद्ध के जीवन प्रसंगों से जुड़े होने के साथ-साथ अपने आपमें हर गीत पूर्ण और अन्यों से स्वतंत्र है। बुद्ध के जीवन के सभी महत्वपूर्ण प्रसंगों पर रचित नवगीत बुद्ध तथा अन्य पात्रों के माध्यम से सामने आते हुए घटनाक्रम और कथावस्तु को पाठक तक पूरी संवेदना के साथ पहुँचाते हैं। नवगीत के मानकों और शिल्प से रचनाकार न केवल परिचित है अपितु उनको प्रयोग करने में प्रवीण भी है। यदि आरंभिक मानकों से हटकर उसने नवगीत रचे हैं तो यह कोई कमी नहीं, नवगीत लेखन के नव आयामों का अन्वेषण है।
काव्य नाटक साहित्य का वह रूप है जिसमें काव्यत्व और नाट्यत्व का सम्मिलन होता है। काव्य तत्व नाटक की आत्मा तथा नाट्य तत्व रूप व कलेवर का निर्माण करता है। काव्य तत्व भावात्मकता, रसात्मकता तथा आनुभूतिक तीव्रता का वाहक होता है जबकि नाट्य तत्व कथानक, घटनाक्रम व पात्रों का। अंग्रेजी साहित्य कोश के अनुसार ''पद्य में रचित नाटक को 'पोयटिक ड्रामा' कहते हैं। इनमें कथानक संक्षिप्त और चरित्र संख्या सीमित होती है। यहाँ कविता अपनी स्वतंत्र सत्ता खोकर अपने आपको नाटकीयता में विलीन कर देती है।१ टी. एस. इलियट के अनुसार कविता केवल अलंकरण और श्रवण-आनंद की वाहक हो तो व्यर्थ है।२ एबरकोम्बी के अनुसार कविता नाटक में पात्र स्वयं काव्य बन जाता है।३ डॉ. नगेन्द्र के मत में कविता नाटकों में अभिनेयता का तत्व महत्वपूर्ण होता है।४, पीकोक के अनुसार नाटकीयता के साथ तनाव व द्वंद भी आवश्यक है।५ डॉ. श्याम शर्मा मिथकीय प्रतीकों के माध्यम से आधुनिक युगबोध व्यंजित करना काव्य-नाटक का वैशिष्ट्य कहते हैं६ जबकि डॉ. सिद्धनाथ कुमार इसे दुर्बलता मानते हैं।७. डॉ. लाल काव्य नाटक का लक्षण बाह्य संघर्ष के स्थान पर मानसिक द्वन्द को मानते हैं।८.
भारतीय परंपरा में काव्य दृश्य और श्रव्य दो वर्गों में वर्गीकृत है। दृश्य काव्य मंचित किए जा सकते हैं। दृश्य काव्य में परिवेश, वेशभूषा, पात्रों के क्रियाकलाप आदि महत्वपूर्ण होते हैं। विवेच्य कृति में चाक्षुष विवरणों का अभाव है। 'अप्प दीपो भव' को काव्य नाटक मानने पर इसकी कथावस्तु और प्रस्तुतीकरण को रंगमंचीय व्यवस्थाओं के सन्दर्भ में भी आकलित करना होगा। कृति में कहीं भी रंगमंच संबंधी निर्देश या संकेत नहीं हैं। विविध प्रसंगों में पात्र कहीं-कहीं आत्मालाप तो करते हैं किन्तु संवाद या वार्तालाप नहीं हैं। नवगीतकार द्वारा पात्रों की मन: स्थितियों को सूक्ष्म संकेतों द्वारा इंगित किया गया है। कथा को कितने अंकों में मंचित किया जाए, कहीं संकेत नहीं है। स्पष्ट है कि यह काव्य नाटक नहीं है। यदि इसे मंचित करने का विचार करें तो कई परिवर्तन करना होंगे। अत:, इसे दृश्य काव्य या काव्य नाटक नहीं कहा जा सकता।
श्रव्य काव्य शब्दों द्वारा पाठकों और श्रोताओं के हृदय में रस का संचार करता है। पद्य, गद्य और चम्पू श्रव्यकाव्य हैं। गत्यर्थक में 'पद्' धातु से निष्पन ‘पद्य’ शब्द गति प्रधान है। पद्यकाव्य में ताल, लय और छन्द की व्यवस्था होती है। पद्यकाव्य के दो उपभेद महाकाव्य और खण्डकाव्य हैं। खण्डकाव्य को ‘मुक्तकाव्य’ भी कहते हैं। खण्डकाव्य में महाकाव्य के समान जीवन का सम्पूर्ण इतिवृत्त न होकर किसी एक अंश का वर्णन किया जाता है— खण्डकाव्यं भवेत्काव्यस्यैकदेशानुसारि च। – साहित्यदर्पण।
कवित्व व संगीतात्मकता का समान महत्व होने से खण्डकाव्य को ‘गीतिकाव्य’ भी कहते हैं। ‘गीति’ का अर्थ हृदय की रागात्मक भावना को छन्दोबद्ध रूप में प्रकट करना है। गीति की आत्मा भावातिरेक है। अपनी रागात्मक अनुभूति और कल्पना के कवि वर्ण्यवस्तु को भावात्मक बना देता है। गीतिकाव्य में काव्यशास्त्रीय रूढ़ियों और परम्पराओं से मुक्त होकर वैयक्तिक अनुभव को सरलता से अभिव्यक्त किया जाता है। स्वरूपत: गीतिकाव्य का आकार-प्रकार महाकाव्य से छोटा होता है। इस निकष पर 'अप्प दीपो भव' नव गीतात्मक गीतिकाव्य है। संस्कृत में गीतिकाव्य मुक्तक और प्रबन्ध दोनों रूपों में प्राप्त होता है। प्रबन्धात्मक गीतिकाव्य मेघदूत है। मुक्तक काव्य में प्रत्येक पद्य अपने आप में स्वतंत्र होता है। इसके उदाहरण अमरूकशतक और भतृहरिशतकत्रय हैं। संगीतमय छन्द व मधुर पदावली गीतिकाव्य का लक्षण है। इन लक्षणों की उपस्थित्ति 'अप्प दीपो भव' में देखते हुए इसे नवगीति काव्य कहना उपयुक्त है। निस्संदेह यह हिंदी साहित्य में एक नयी लीक का आरम्भ करती कृति है।
हिंदी में गीत या नवगीत में प्रबंध कृति का विधान न होने तथा प्रसाद कृत 'आँसू' तथा बच्चन रचित 'मधुशाला' के अतिरिक्त अन्य महत्त्वपूर्ण कृति न लिखे जाने से उपजी शून्यता को 'अप्प दीपो भव' भंग करती है। किसी चरिते के मनोजगत को उद्घाटित करते समय इतिवृत्तात्मक लेखन अस्वाभाविक लगेगा। अवचेतन को प्रस्तुत करती कृति में घटनाक्रम को पृष्ठभूमि में संकेतित किया जाना पर्याप्त है। घटना प्रमुख होते ही मन-मंथन गौड़ हो जाएगा। कृतिकार ने इसीलिये इस नवगीतिकाव्य में मानवीय अनुभूतियों को प्राधान्य देने हेतु एक नयी शैली को अन्वेषित किया है। इस हेतु लुमार रवीन्द्र साधुवाद के पात्र हैं।
बुद्ध को विष्णु का अवतार स्वीकारे जाने पर भी पर स्व. मैथिलीशरण गुप्त रचित यशोधरा खंडकाव्य के अतिरिक्त अन्य महत्वपूर्ण काव्य कृति नहीं है जबकि महावीर को विष्णु का अवतार न माने जाने पर भी कई कवत कृतियाँ हैं। कुमार रवीन्द्र ने बुद्ध तथा उनके जीवन काल में महत्वपूर्ण भूमिका निर्वाह करनेवाले पात्रों में अंतर्मन में झाँककर तात्कालिक दुविधाओं, शंकाओं, विसंगतियों, विडंबनाओं, उनसे उपजी त्रासदियों से साक्षात कर उनके समाधान के घटनाक्रम में पाठक को संश्लिष्ट करने में सफलता पाई है। तथागत ११, नन्द ५, यशोधरा ५, राहुल ५, शुद्धोदन ५, गौतमी २, बिम्बसार २, अंगुलिमाल २, आम्रपाली ३, सुजाता ३, देवदत्त १, आनंद ४ प्रस्तुतियों के माध्यम से अपने मानस को उद्घाटित करते हैं। परिनिर्वाण, उपसंहार तथा उत्तर कथन शीर्षकान्तार्गत रचनाकार साक्षीभाव से बुद्धोत्तर प्रभावों की प्रस्तुति स्वीकारते हुए कलम को विराम देता है।
गृह त्याग पश्चात बुद्ध के मन में विगत स्मृतियों के छाने से आरम्भ कृति के हर नवगीत में उनके मन की एक परत खुलती है. पाठक जब तक पिछली स्मृति से तादात्म्य बैठा पाए, एक नयी स्मृति से दो-चार होता है। आदि से अंत तक औत्सुक्य-प्रवाह कहीं भंग नहीं होता। कम से कम शब्दों में गहरी से गहरी मन:स्थिति को शब्दित करने में कुमार रवीन्द्र को महारथ हासिल है। जन्म, माँ की मृत्यु, पिता द्वारा भौतिक सुख वर्षा, हंस की प्राण-रक्षा, विवाह, पुत्रजन्म, गृह-त्याग, तप से बेसुध, सुजाता की खीर से प्राण-रक्षा, भावसमाधि और बोध- 'गौतम थे / तम से थे घिरे रहे / सूर्य हुए / उतर गए पल भर में / कंधों पर लदे-हुए सभी जुए', 'देह के परे वे आकाश हुए', 'दुःख का वह संस्कार / साँसों में व्यापा', 'सूर्य उगा / आरती हुई सॉंसें', ''देहराग टूटा / पर गौतम / अन्तर्वीणा साध न पाए', 'महासिंधु उमड़ा / या देह बही / निर्झर में' / 'सभी ओर / लगा उगी कोंपलें / हवाओं में पतझर में', 'बुद्ध हुए मौन / शब्द हो गया मुखर / राग-द्वेष / दोनों से हुए परे / सड़े हुए लुगड़े से / मोह झरे / करुना ही शेष रही / जो है अक्षर / अंतहीन साँसों का / चक्र रुका / कष्टों के आगे / सिर नहीं झुका / गूँजे धम्म-मन्त्रों से / गाँव-गली-घर / ऋषियों की भूमि रही / सारनाथ / करुणा का वहीं उठा / वरद हाथ / क्षितिजों को बेध गए / बुद्धों के स्वर'
गागर में सागर समेटती अभिव्यक्ति पाठक को मोहे रखती है। एक-एक शब्द मुक्तामाल के मोती सदृश्य चुन-चुन कर रखा गया है। सन्यस्त बुद्ध के आगमन पर यशोधरा की अकथ व्यथा का संकेतन देखें 'यशोधरा की / आँख नहीं / यह खारे जल से भरा ताल है... यशोधरा की / देह नहीं / यह राख हुआ इक बुझा ज्वाल है... यशोधरा की / बाँह नहीं / यह किसी ठूँठ की कटी डाल है... यशोधरा की / सांस नहीं / यह नारी का अंतिम सवाल है'। अभिव्यक्ति सामर्थ्य और शब्द शक्ति की जय-जयकार करती ऐसी अभिव्यक्तियों से समृद्ध-संपन्न पाठक को धन्यता की प्रतीति कराती है। पाठक स्वयं को बुद्ध, यशोधरा, नंद, राहुल आदि पात्रों में महसूसता हुआ सांस रोके कृति में डूबा रहता है।
कुमार रवींद्र का काव्य मानकों पर परखे जाने का विषय नहीं, मानकों को परिमार्जित किये जाने की प्रेरणा बनता है। हिंदी गीतिकाव्य के हर पाठक और हर रचनाकार को इस कृति का वाचन बार-बार करना चाहिए।
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संदर्भ- १. दामोदर अग्रवाल, अंग्रेजी साहित्य कोश, पृष्ठ ३१४।२. टी. एस. इलियट, सलेक्ट प्रोज, पृष्ठ ६८। ३. एबरकोम्बी, इंग्लिश क्रिटिक एसेज, पृष्ठ २५८। ४. डॉ. नगेंद्र, अरस्तू का काव्य शास्त्र, पृष्ठ ७४। ५. आर. पीकोक, द आर्ट ऑफ़ ड्रामा, पृष्ठ १६०। ६. डॉ. श्याम शर्मा, आधुनिक हिंदी नाटकों में नायक, पृष्ठ १५५। ७. डॉ. सिद्धनाथ कुमार, माध्यम, वर्ष १ अंक १०, पृष्ठ ९६। ८. डॉ. लक्ष्मी नारायण लाल, आधुनिक हिंदी नाटक और रंगमंच, पृष्ठ १०। ९.
***
दोहा दुनिया
*
सरहद पर सर काट कर, करते हैं हद पार
क्यों लातों के देव पर, हों बातों के वार?
*
गोस्वामी से प्रभु कहें, गो स्वामी मार्केट
पिज्जा-बर्जर भोग में, लाओ न होना लेट
*
भोग लिए ठाकुर खड़ा, करता दंड प्रणाम
ठाकुर जी मुस्का रहे, आज पड़ा फिर काम
*
कहें अजन्मा मनाकर, जन्म दिवस क्यों लोग?
भले अमर सुर, मना लो मरण दिवस कर सोग
*
ना-ना कर नाना दिए, है आकार-प्रकार
निराकार पछता रहा, कर खुद के दीदार
५-५-२०१७
***
मुक्तिका
*
वार्णिक छंद: अथाष्टि जातीय छंद
मात्रिक छंद: यौगिक जातीय विधाता छंद
1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2 , 1 2 2 2.
मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन, मुफ़ाईलुन,मुफ़ाईलुन।
बहरे हज़ज मुसम्मन सालिम।।
*
दियों में तेल या बाती नहीं हो तो करोगे क्या?
लिखोगे प्रेम में पाती नहीं भी तो मरोगे क्या?
.
बुलाता देश है, आओ! भुला दो दूरियाँ सारी
बिना गंगा बहाए खून की, बोलो तरोगे क्या?
.
पसीना ही न जो बोया, रुकेगी रेत ये कैसे?
न होगा घाट तो बोलो नदी सूखी रखोगे क्या?
.
परों को ही न फैलाया, नपेगा आसमां कैसे?
न हाथों से करोगे काम, ख्वाबों को चरोगे क्या?
.
न ज़िंदा कौम को भाती कभी भी भीख की बोटी
न पौधे रोप पाए तो कहीं फूलो-फलोगे क्या?
...
इस बह्र में कुछ प्रचलित गीत
१. तेरी दुनिया में आकर के ये दीवाने कहाँ जाएँ
मुहब्बत हो गई जिनको वो परवाने कहाँ जाएँ
२. मुझे तेरी मुहब्बत का सहारा मिल गया होता
३. चलो इक बार फिर से अजनबी बन जाए हम दोनों
४. खुदा भी आसमाँ से जब जमीं पर देखता होगा
५. सुहानी रात ढल चुकी न जाने तुम कब आओगेे
६. कभी तन्हाइयों में भी हमारी याद आएगी
७. है अपना दिल तो अावारा न जाने किस पे आएगा
८. बहारों फूल बरसाओ मेरा महबूब आया है
९. सजन रे! झूठ मत बोलो खुदा के पास जाना है
५-५-२०१७
***
दोहा प्रश्नोत्तर
कविता का है मूल क्या?,
और आप हैं कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
नवगीत:
*
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
दाँत दूध के टूट न पाये
पर वयस्क हैं.
नहीं सुंदरी नर्स इसलिए
अनमयस्क हैं.
चूस रहे अंगूठा लेकिन
आँख मारते
बाल भारती पढ़ न सके
डेटिंग परस्त हैं
हर उद्यान
काम-क्रीड़ा हित
इनको बाखर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
.
मकरध्वज घुट्टी में शायद
गयी पिलायी
वात्स्यायन की खोज
गर्भ में गयी सुनायी
मान देह को माटी माटी से
मिलते हैं
कीचड किया, न शतदल कलिका
गयी खिलायी
मन अनजाना
तन इनको केवल
जलसाघर
जिन्स बना
बिक रहा आजकल
ढाई आखर
५-५-२०१५
***
छंद सलिला:
जग छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १० - ८ - ५, चरणान्त गुरु लघु (तगण, जगण) ।
लक्षण छंद:
कदम-कदम मंज़िल / को छू पायें / पग आज
कोशिश-शीश रखेँ / अनथक श्रम कर / हम ताज
यति दस आठ पाँच / पर, गुरु लघु हो / चरणांत
तेइस मात्री जग / रच कवि पा यश / इस व्याज
उदाहरण:
१. धूप-छाँव, सुख-दुःख / धीरज धरकर / ले झेल
मन मत विचलित हो / है यह प्रभु / का खेल
सच्चे शुभ चिंतक / को दुर्दिन मेँ / पहचान
संग रहे तम मेँ / जो- हितचिंतक / मतिमान
२. चित्रगुप्त परब्रम्ह / ही निराकार / साकार
कंकर-कंकर मेँ / बसते लेकर / आकार
घट-घटवासी हैं / तन में आत्मा / ज्यों गुप्त
जागृत देव सदैव / होते न कभी / भी सुप्त
३. हम सबको रहना / है मिलकर हर/दम साथ
कभी न छोड़ेंगे / हमने थामे / हैं हाथ
एक-नेक होँ हम / सब भेद करें/गे दूर
'सलिल' न झुकने दें/गे हम भारत / का माथ
५-५-२०१४
***
मुखपुस्तकी गपशप- स्त्री विमर्श
women are like vehicles, everyone appreciate the outside beauty, but the inner beauty is embraced by her owner- - पायल शर्मा
*
संजीव
'स्त्री वाहन नहीं, संस्कृति की वाहक है.
मानव मूल्यों की स्त्री ही तो चालक है..
वाहन की चाबी कोई भी ले सकता है.
चाबी लगा घुमा कर उसको खे सकता है.
स्त्री चाबी बना पुरुष को सदा घुमाती.
जब जी चाहे रोके, उठा उसे दौडाती.
विधि-हरि-हर पर शारद-रमा-उमा हावी हैं.
नव दुर्गा बन पुजती स्त्री ही भावी है'
*
नवीन चतुर्वेदी, मुम्बई- आपकी भाषा जानी पहचानी सी लगती है |
*
राज भाटिया- बहुत सुंदर लगी आप की यह कविता
*
संजीव
स्त्री सदा 'नवीन' है, पुरुष सदा प्राचीन.
'राज' करे नाराज हो, यह उँगली वह बीन..
कौन 'चतुर्वेदी' जिसे, यह चतुरा न नचाय.
भाट बने जो 'भाटिया', का ख़िताब वह पाय..
नाच इशारों पर 'सलिल', तभी रहेगी खैर.
देव न दानव बच सके, स्त्री से कर बैर..
*
नवींन चतुर्वेदी
बात करें यूँ सार की, लगती मगर अजीब |
उनका ही तो नाम है, वर्मा सलिल संजीव ||
*
संजीव
बात सार की चाहता, करता जगत असार.
मतभेदों को पोसते, 'सलिल' न पालें प्यार..
है 'नवीन' जो आज वह, कल होता प्राचीन.
'राज' स्वराज विराजता, पर जनगण है दीन..
*
५.५.२०१०
प्रश्नोत्तर
कविता का है मूल क्या?,
कवि होता है कौन?
उत्तर दोनों प्रश्न का,
'सलिल' एक है- 'मौन'..
५-५-२०१०

शनिवार, 4 मई 2024

मई ४, विमर्श दोहा विधान, नवगीत, दृढ़पत/उपमान छंद, हरि छंद, मुक्तक

सलिल सृजन मई ४
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दोहा सलिला

दोहा ने दोहा सदा, शब्द-शब्द का अर्थ.
दोहा तब ही सार्थक, शब्द न हो जब व्यर्थ.
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तेरह-ग्यारह; विषम-सम, दोहा में दुहराव.
ग्यारह-तेरह सोरठा, करिए सहज निभाव.
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कुछ अपनी कुछ और की, बात लीजिए मान.
नहीं किसी भी एक ने, पाया पूरा ज्ञान.
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सुन ओशो की देशना, तृप्त करें मन-प्यास.
कुंठाओं से मुक्त हो, रखें अधर पर हास.
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ओ शो मत कर; खुश रहो, ओशो का संदेश.
व्यर्थ रूढ़ि मत मानना, सुन मन का आदेश.
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ओ' शो करना जरूरी, तभी सके जग देख.
मन की मन में रहे तो, कौन कर सके लेख?
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कुछ सुनना; कुछ सुनाना, तभी बनेगी बात.
अपने-अपने तक रहे, सीमित क्यों जज़्बात?
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गला न घोंटें छंद का, बंदिश लगा अनेक.
सहज गेय जो वह सही, माने बुद्धि-विवेक.
Binu Bhatnagar- गेय तो मुक्त छँद भी हो सकता है यदि संगीतकार गुणी है तो

संजीव वर्मा 'सलिल'- मुक्त छंद गेय हो सकता है, छंद हीन गेय नहीं हो सकता. संगीतकार आलाप-मुरकी आदि जोड़कर कमियों को दूर करने के बाद गाता है.

Binu Bhatnagar- जी यही तो मैं कह रही हूँ योग्य संगीतकार के पास इतने साधन होते हैं कि वह गद्य को भी गेय बना सकता है।अलाप, तराना, ताने, वाद्य संगीत कोरस, पुनरावृत्ति, आकार इत्यादि।संगीतकार भी ताल की बंदिश के परे नहीं जा सकता। छँद के नियमों से से गला न घुटे इसलिये तो छँद के बंधन टूटे थे।संगीत में भी सवाल है कि रैपिंग क्या संगीत है?

डॉ. पुष्पा जोशी- सच कहा आदरणीय!

डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- मात्राओं या वर्णों की गणना, यति, गति, लय आदि के नियमों में आबद्ध पद्य-रचना ही छ्न्द है। ये बंदिशें छन्द के गले का फंदा नहीं, उसका सुरक्षा-कवच हैं, आभूषण हैं। जो इन्हें साध नहीं पाते, वे इन्हें छंन्द का बंधन मानते हैं और मुक्तछंद या छंन्दमुक्त रचना की वकालत करते हैं। अशुद्ध छंन्द लिखने से अच्छा है, वे छंदहीन रचना करें !

संजीव वर्मा 'सलिल'- कौन क्या, कब और कैसे लिखे यह कहने का अधिकार किसी अन्य को है क्या? अन्य अपनी पसंद और नापसंदगी की अभिव्यक्ति मात्र कर सकता है. छंद ही नहीं कोई भी रचना अनुभूति को अभिव्यक्त करने के लिए की जाती है. अभिव्यक्ति को अधिक प्रभावी और ग्राह्य बनाने का एक (एकमात्र नहीं) उपकरण है छंद. उपकरण का प्रयोग कौन-कैसे करे यह उपयोगकर्ता की आवश्यकता, रुचि और सामर्थ्य पर निर्भर है. यहाँ चर्चा असंख्य छंदों में से एक दोहा के अनेक मानक विधानों में से एक विषम चरण के अंत में 'गण' प्रयोग को लेकर आरम्भ हुई है. एक पिंगलशास्त्री ने अपनी किताब में कोई नियम प्रस्तावित किया तो छंद उसका कैदी कैसे हो सकता है. वह लेखन जिस लय को साध सका उसने उसका विधान कर दिया. उसके पहले और उसके बाद भी अनेक काल जयी दोहकारों ने उस लय से हटकर भिन्न लय पर सैंकड़ों दोहे कहे जो लिखे जाने के सैंकड़ों साल आज भी पढ़े, कहे और सुने जा रहे हैं. उन दोहों का कथ्य, मर्म, भाव, रस, शिअल्प, बिंब, अलंकार सब शून्य केवल इसलिए कि विषम चरण का अंत भिन्न गण से किया गया. यह एकांगी दृष्टि सर्वथा त्याज्य है. विषम चरणान्त से उपजी लय भिन्नता को तुलसी, कबीर, बिहारी ने स्वीकारते हुए अपने दोहे कहे. मुझे गर्व है कि मैं इस परिवर्तनशील उदात रचना परंपरा का संवाहक हूँ. यह मेरा अधिकार है और इससे मुझे रोकने का किसी को अधिकार नहीं है. मैं छंद लिखता था, लिखता हूँ, लिखता रहूँगा और मुझसे सीखने वालों को इस संकीर्णता से दूर रहने की सीख भी दूंगा.
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- संजीव वर्मा 'सलिल' जी, मैंने भी अपने मत की अभिव्यक्ति ही की है और उसका अधिकार मुझे भी है। मुझसे भी उसे कोई छीन नहीं सकता। हाँ, मेरे मत से सहमत-असहमत होना पाठक का व्यक्तिगत अधिकार है ! माने या न माने, उसकी इच्छा !
संजीव वर्मा 'सलिल'- प्रिय बंधु! बात छंद के केवल एक बिंदु से आरम्भ हुई थी.खाने की थाली में चम्मच दाहिनी और हो या बायीं और और उस पर विमर्श में खाना न खाने की सलाह कितनी उचित है? दोहा का सर्वस्व 'विषम चरणान्त' नहीं है. सर्वाधिक प्रमुख बात है कथ्य, जिसके लिए दोहा कहा जा रहा है. वह पाठक तक पहुँचा या नहीं? पहुँचा तो लेखन असफल अन्यथा समस्त मानकों पर खरा होने पर भी लिखना निरर्थक. कथ्य पर ६०% अंक, शिल्प के ४०% अंक दो पंक्तियों, चार चरणों, ४८ मात्राओं, १३-११ पर यति, आरम्भ में जगण निषेध, अंत में गुरु-लघु की बाध्यता, संज्ञा, क्रिया, क्रम, काल आदि दोष न होना, अलंकार, मिथक, आदि के २-२ अंक ही होंगे. यदि विषम चरणान्त की भिन्नता को दोष मानें तो २ अंक ही तो काटेंगे. इस कारण से १०० में से १०० अंक काटकर छंद न लिखने का फतवा देना कितना उचित है???
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- यह अंक-विभाजन तो आपकी मर्जी के अनुसार हुआ है, जो छंद-दोष को कोई मान्यता नहीं देते। किसी छंदशास्त्री ने तो यह विभाजन किया नहीं है। अच्छा, इसे सही भी मानें, तब भी दो अंकों की कमी के कारण दोहा दोषपूर्ण तो कहा ही जायेगा। और अगर दोष रत्तीभर भी है, तब भी रसनिष्पत्ति में बाधा तो पहुँचती ही है। सम्प्रेषण भी सही हो और छंद में दोष भी नहीं रहे, ऐसा प्रयास तो करना ही चाहिए। लेकिन आप तो छन्द-साधना की तुलना खाने की थाली से कर रहे हैं। कमाल है ! अगर पेट भरना ही ध्येय है तो खप्पर में खानेवाले कापालिक भी भर लेते हैं, थाली की क्या आवश्यकता है ?
मनोज जैन- आदरणीय डॉ. ब्रह्मजीत गौतम जी से सहमत
संजीव वर्मा 'सलिल'- जिसे मोहन भोग में रूचि हो ग्रहण करे लेकिन उसे बाजरे की रोटी के तिरस्कार का अधिकार किसने दिया? जो किसी ने पहले नहीं किया वह आगे भी न किया जाए तो विकास ही रुक जाएगा और भाषा तथा छंद जड़ होकर रह जाएँगे. दृष्टांत और तुलना बात का बोध करने के लिए ही दी जाते हैं उन्हें रूढ़ार्थ में ग्रहण नहीं किया जाता, भावार्थ लिया जाता है. अति शुद्धता के आग्रह के कारण ही संस्कृत जैसी श्रेष्ठ भाषा लोक से दूर हो गई. अगणित रचनाकार छंद को गूढ़ बनाये जाने के कारण बहर की और पलायन कर गए.
मनोज जैन- आप लाख तर्क दें दोहा तो निर्दोष छंद में ही आनन्द देता है। आज भी संस्कृत लिखी पढ़ी और बोली जाती है यह बात और है कि इसे पूरी तरह उपयोग में लाने वालों की संख्या कम है। मेरा मानना यह है इस क्षेत्र में भी मूर्ख आचार्यो ने उल जलूल ज्ञान बांटना आरम्भ कर दिया जिन्हें शब्दों की तारीस का पता नहीं ऐसे लोगों को आचार्य मान लिया गया तब से विशुद्ध छंद साधकों के सामने संकट खड़ा हो गया ।
संजीव वर्मा 'सलिल'- जिसे जिसमें आनंद मिलता है ले, दूसरे को रोक या बाध्य कैसे कर सकता है? आप को जो दोहा पसंद न हो, न पढ़ें लेकिन कोइ अन्य भी न पढ़े, ना पसंद करे, न लिखे यह अधिकार कहाँ से मिलता है? मित्र या साहित्यप्रेमी होने के नाते अपनी बात रखें, दूसरे को भी रखने दें. 'कु' और 'मूर्ख' जैसे विशेषण क्यों? इनके बदले दूसरा भी ऐसी ही शब्दावली का प्रयोग करें तो दूरदर्शन पर नेताओं की बहसों जैसा दृश्य उपस्थित होना ठीक होगा क्या? मत भिन्नता को शालीनता से भी व्यक्त किया जा सकता है.
मनोज जैन- यह गलत हस्तक्षेप है कुतर्क से सत्य को ढ़कने की असफल कोशिश।
संजीव वर्मा 'सलिल'- आपकी शब्दावली को देखते हुए आपको अपने से संवाद का अधिकारी नहीं मानता. पहले शिष्टाचार सीखें. अपशब्द कहना कमजोरी का लक्षण है.
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- संजीव वर्मा 'सलिल' जी, आप एक ओर तो अपने विचारों को मोहनभोग के मुकाबले बाजरे की रोटी कह रहे हैं, दूसरी ओर कुछ नया करने की इच्छा भी जता रहे हैं। नया करने का मतलब मनमानी करना या स्वच्छंद होना नहीं है। रही छन्द और बह्र की बात , तो शायद आप बह्र के बारे में जानते ही नहीं हैं, केवल नाम सुन रखा है। वह तो छंद से भी कठिन है !
संजीव वर्मा 'सलिल'- हस्तक्षेप आप कर रहे हैं.
मनोज जैन- संजीव वर्मा 'सलिल' जी सर हम तो अपनी बात कह कर जा रहे हैं यहाँ से क्षमा सहित।
संजीव वर्मा 'सलिल'- ऐसे बदतमीज का यहाँ न रहना ही ठीक है.

मनोज जैन- जी सर यह एक आचार्य की भाषा है स्वयं के लिए विचारणीय!!! आपके शब्द आपको अर्पित
संजीव वर्मा 'सलिल'- जो बोया सो काटिए। अभद्रता का आरंभ अपने ही किया था।
मुरारि पचलंगिया- सही चेतावनी
अवनीश तिवारी- छंद नियम एक तरह का अनुशासन है। बिना अनुशासन के कोई प्रयास सफल नही होगा।
Sujeet Kumar Srivastava- छंद कोई कविता की अनिवार्य शर्त नहीं है।कई कविताएं बिना छंद के भी गेय होती हैं।स्केल लेके मात्रा नापते रहें चाहे भाव हो या नहीं।हिंदी की हालत बहुत खराब है।बहुत महान कवि हैं जो मुक्त धारा में लिखे और खूब पढ़े गए।केदार नाथ सिंह,अमृता प्रीतम ,यहां तक कि कई फिल्म के गीतकारों ने मात्रा नापके नहीं लिखा।अपने भाव को व्यक्त करिये चाहे जैसे।कविता को छंद के नियम से लिखें तो भी ठीक और न लिखे तो भी ठीक।ज्यादा विद्वता और तर्क भक्ति और भाव को खा जाती है।ये मेरा निजी विचार है।मैं कवि नहीं हूं। मैथ्स का प्रवक्ता हूं।जो मन में था लिख दिया।
संजीव वर्मा 'सलिल'- धन्यवाद सुजीत जी . मैं भी गणित का विद्यार्थी, पेशे से अभियंता हूँ. इसलिए जानता हूँ कितनी गणना हो कितनी व्याख्या.
Sujeet Kumar Srivastava- धन्यवाद।मैं आप जैसा विद्वान नहीं हूं हिंदी का।जो मन में था वो कह दिया।कोई इसका संवैधानिक नियम तो है नहीं कि कविता की अनिवार्य शर्त क्या हो और न ही कोई इसका सर्वमान्य देवता।
संजीव वर्मा 'सलिल'- छंद का विधान तो होता है, उसका पालन करना भी चाहिए. विधान की व्याख्याएँ भिन्न-भिन्न हो सकती हैं. सडक पर बाएं चलना चाहिए. बायीं और की सडक खुदी हो और आप दाहिने से चलें, कोई कहे बाएं से ही जाओ. तो गलत होगा न? अनुशासन सामान्य स्थिति के लिए है, जिसे आवश्यकतानुसार बदला भी जा सकता है.
Sujeet Kumar Srivastava- सही है।आप एक छंदशास्त्री हैं।अपनी बात मनवाके ही रहेंगे।बहुत अच्छा लगा।आप हमसे उम्र में बड़े हैं।विद्वान हैं।आनंद आ गया।जय श्री कृष्ण
संजीव वर्मा 'सलिल'- नहीं बंधु! मैं विद्यार्थी मात्र हूँ. मेरे घर में पानी भर जाए तो मैं अन्य के घर को अपना नहीं कह सकता. अपने घर में हे एराहना होगा. घर छंद का विधान है, सडक व्याख्या. विमर्श का आशय यह समझना है कि मेरी समझ तो गलत नहीं? विधान का पालन करते हुए, लयबद्ध रहते हुए लीक से यत्किंचित हटना भी अस्वीकार कर देने पर छंद की हानि है. नव रचनाकाए छंद को असाध्य मानकर छ्न्धीनाता की और या ग़ज़ल की और चले जाते हैं. अस्तु. आपकी सह्रदयता को नमन .
Sujeet Kumar Srivastava- प्रणाम।जय सिया राम।अति आनंद।अभी मैं करीब दो वर्ष पहले काठमांडू में एक बड़ी श्री रामकथा कह रहा था तो वहां भी कई विद्यार्थी कथा के अंतिम दिन कविसम्मेलन किये ।अच्छा लगता है कि आज विदेशों में कविताएं लिखी जा रहीं हैं।मुख्य मुद्दा यह है कि हिंदी विश्व भाषा बने।आपसे बात करके अच्छा लगा। सादर प्रणाम
संजीव वर्मा 'सलिल'- जी, मुझे भी आनंद मिला. श्री चित्रगुप्त कथा भी करते हैं क्या? जय श्री चित्रगुप्त.
Sujeet Kumar Srivastava- आपके आशीर्वाद से हमको अमेरिका में पुरस्कार मिला है।
संजीव वर्मा 'सलिल'- मेरा सौभाग्य आपसे चर्चा का अवसर मिला.
Sujeet Kumar Srivastava- Sharma Chandra Kanta बहन जी सही बात है। मैं विद्वान हूं ही नहीं। मैं तो बहुत साधारण व्यक्ति हूं। कोई किसी के जैसा बन नहीं सकता। आपने कई जन्मों की बात की है। आपकी यह प्रतिक्रिया श्री संजीव सर के प्रति सम्मान को दिखाता है। मैं भी उनका बहुत बड़ा प्रशंशक हूं। बहन जी माफ करना इतना क्रोध और त्वरित टिप्पड़ी से बचना चाहिए।जय सीता राम।
संजीव वर्मा 'सलिल'- आप दोनों को सादर नमन. मुझ सामान्य विद्यार्थी का सौभाग्य कि दो विद्वान स्नेहाशीष की वृष्टि कर रहे हैं. निवेदन मात्र यह कि चर्चा किसी अन्य सार्थक बिंदु पर हो
Sujeet Kumar Srivastava- Sharma Chandra Kanta आप बड़ी बहन जैसी हैं।सादर प्रणाम
संजीव वर्मा 'सलिल'- हम सब माँ शारदा की शरण में हैं. सभी कुछ न कुछ नित्य सीखते हैं. चंद्र कांता जी हिंदी की विभागाध्यक्ष और सेवानिवृत्त प्राचार्य हैं. सुजीत जी कथा वाचक विद्वान हूँ. इन दो पाटों के बीच मैं बेचारा विद्यार्थी आशीष की कामना ही कर सकता हूँ. मो सम कौन कुटिल खल कामी,... क्षमा करो प्रभु अवगुन मोरे...
Sujeet Kumar Srivastava- संजीव वर्मा 'सलिल' अरे नहीं सर मैं आपसे उम्र में बहुत छोटा हूं।आप विद्वता से परिपूर्ण हैं।पिता तुल्य हैं।मेरे पास भी कई विद्यालय है।एक बड़ा साम्राज्य है हमारा अभी और भी कार्य प्रगति पे है।कभी गोरखपुर आइए तो हमारा आतिथ्य स्वीकार कीजिये।अपना आशीर्वाद बनाये रखिये।चंद्रकांता दीदी बहुत बड़े सम्मानित पद को सुशोभित की हैं।आप दोनों का आशीर्वाद बना रहे यही अभिलाषा है।जय जय श्री राधे
संजीव वर्मा 'सलिल'- अपने विद्यालयों में हिंदी की कार्यशालाएं कर सकें तो नई पीढ़ी का भला हो. हिंदी व्याकरण, पिंगल और गद्य आदि की कार्यशालाएं हों. बच्चों को लेखन और हिंदी से अर्थोपार्जन की संभावनाएं बताई जाएं तो वे अंग्रेजी के अंध मोह से मुक्त होकर हिंदी के प्रति समर्पित होंगे. जब भी ऐसा कार्यक्रम हो बताएं, मैं आऊँगा और लाभ लूंगा. भगवन चित्रगुप्त पर भी प्रवचन माला होना चाहिए. हर वर्ष ३ से ५ दिन विविध विद्वान् बुलाये जा सकते हैं. एक सुझाव और- आजकल प्राइवेट मेडिकल कॉलेज खोले जा रहे हैं. साधन हों तो एक निजी मेडिकल कोलेज खोलने का प्रयास करें जहाँ आयुर्वेद और एलोपैथी दोनों का अध्ययन हो और नब्ज़ विज्ञान को विकसित किया जाए. यह क्रांतिकारी कदम होगा.
Sujeet Kumar Srivastava- संजीव वर्मा 'सलिल' सर मेरे पास बहुत बड़ी टीम है।देश विदेश में हमारे बहुत शिष्य है।मेरा ज्योतिष का,कथा का बहुत शानदार कार्य है।मैं प्रत्येक वर्ष दो बार विशाल कविसम्मेलन कराता हूं।अब तक मैंने सैकड़ो यज्ञ करवाये।अब आपके आदेश का पालन होगा चित्रगुप्त कथा भी करूँगा।अभी जून में मेरे मुम्बई और सूरत में बड़े अनुष्ठान हैं।जल्द ही एक बड़ा सेमिनार हिंदी पे करूंगा।आप सादर आमंत्रित हैं।आप अभिवावक हैं।आपको तो बिना बुलाये हमारे शहर आना चाहिए कार्यक्रम तो तुरंत हो जाएगा इतना संसाधन तो तुरंत हमारे पास है।जय सिया राम
संजीव वर्मा 'सलिल'- सहज पके सो मीठा होय. अवसर मिलते ही आता हूँ. गोरखपुर राष्ट्रीय कायस्थ महासभा के सम्मेलन में आया था लगभग ३०-३२ वर्ष पूर्व. चित्रगुप्त जी की मनोहारी प्रतिमा के भव्य दर्शन हुए थे. मैनपुरी में गाडीवान मोहल्ला में एक जुगलकिशोर मंदिर है. वहां लगभग ३०० वर्ष से अधिक पुरानी ढाई फुट की पीतल की मूर्तियाँ थीं जिन्हें चुरा लिया गया. उनका मूल्य करोड़ों रुपयों है. क्या प्रशासन पर दबाव डालकर, पुलिस से खोज कराकर फिर स्थापित कराया जा सकता है?
संजीव वर्मा 'सलिल'- 28-2-2018 को ठाकुर जुगल बिहारी जी महाराज की 126 साल पुरानी अष्टधातु की मूर्ति चोरी के विरोध में तिकोनिया पार्क कलेक्ट्रेट में धरना प्रदर्शन करते हुए जबकि राज्य में बीजेपी की सरकार है और 1 महीने से मूर्ति बरामद नही हो पाई है और मंचो पर खड़े होकर सिर्फ भाषण दिया जाता है और हकीकत यह है कि 126 साल पुरानी मूर्ति आज तक बरामद नही हो पाई है और बिडम्बना यह है कि किसी भी हिन्दूवादी संगठन का कोई भी समर्थन प्राप्त नही हुआ।
Sujeet Kumar Srivastava- प्रयास किया जाएगा।

संजीव वर्मा 'सलिल'- यह बहुत बड़ा मंदिर, पुरातत्व महत्त्व की इमारत है, लखौरी ईंटों की बनी हुई राजस्थानी महलों जैसी. राय बहादुर माताप्रसाद सिन्हा 'रईस' किसी समय मैनपुरी के ऑनरेरी मजिस्ट्रेट, शक्कर मीलों औए बैंक के डायरेक्टर थे. उनके बाबा के द्वारा बनवाया गया मंदिर है. वे गांधी जी के प्रभाव में रायबहादुरी लौटाकर सत्त्यग्रही हो गए थे. कुछ हो सके तो देखिएगा.

आदर्शिनी श्रीवास्तव- वही तो ......
मनोज जैन- आपका दोहा अशुद्ध है आपके ही छंद से दोहे का गला घुट रहा है ।
मनोज जैन- गला न घोंटें छंद का, बंदिश लगा अनेक. / सहज गेय जो (वह सही), माने बुद्धि-विवेक.

यहां बड़ी गड़बड़ी कर दी आचार्य जी आपने।
संजीव वर्मा 'सलिल'- आपका मत आपको मुबारक, आप मेरे परीक्षक नहीं हैं.


संजीव वर्मा 'सलिल'- प्रिय गौतम जी सब कुछ केवल आप ही जानते हैं, ऐसा भ्रम आपको मुबारक हो. मुझे कुछ नहीं आता, तो आप मुझे पढ़कर आप अपना समय क्यों खराब कर रहे हैं? मत वैभिन्न्य स्वाभाविक है. उसे लेकर अन्य की जानकारी पर प्रश्न लगाना कितना उचित है? शांत मन से सोचें. जब संयम न रहे तो चर्चा बंद करना ही उचित है. जैसे आपको मेरा मत अस्वीकार्य है वैसे ही मुझे भी आपका मत अस्वीकार्य है.
मनोज जैन- संजीव वर्मा 'सलिल' जी कमजोर आदमी की पहचान जल्दी उबाल आ जाता है।
संजीव वर्मा 'सलिल'- तभी तो आपमें आया और आपने 'कु' और' मूर्ख' का उपयोग किया मैंने तो इसे बदतमीजी मात्र कहा है. इसे शिष्टाचार आप मानते होंगे, मुझे सामनेवाले को कम आँकने और अपशब्द कहने की आदत नहीं है.
मनोज जैन- नहीं किसी व्यक्ति विशेष के सम्बंध में मेरा यह कथन है ही नहीं ।
संजीव वर्मा 'सलिल'- आप ऊपर अपना कथन पढ़ लें. मुझे किसी से किसी प्रमाणपत्र की आवश्यकता नहीं है. स्वांत: सुखाय लिखता हूँ. अभिव्यक्ति का अधिकार भारत का संविधान देता है. विमर्श का सदा स्वागत है आरोपों और अशिष्टता का नहीं.
मनोज जैन- मैं तो अभी भी संयत ही हूँ।चर्चा होती है मत भिन्नता हो सकती है मन भेद नहीं होना चाहिये।

आप अपनी पोस्ट पढ़ें आपके स्तर पर जाकर भाषा का प्रयोग तो मैंने किया ही नहीं। आप कभी संकल्प रथ पत्रिका की सम्पादकीय पढ़ लीजिये मूर्ख/ दो कौड़ी शब्द कई स्थान पर मिलेगें लेकिन पूरा साहित्य जगत कभी बुरा नहीं माना
संजीव वर्मा 'सलिल'- जी मैने एक भी आरोप नहीं लगाया न ही कम आँका।
मनोज जैन- और न ही अशिष्टता की ।
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जिया जिया में बसा ले, दोहा छंद पुनीत.
दोहा छंद जिया अगर, दिन दूनी हो प्रीत.
[आचार्य प्रताप- प्रथम चरण में ११ वीं मात्रा लघु कर दें। शेष श्रेष्ठ सृजन।

सलिल- आवश्यकता नहीं है. विषम चरणान्त में 'सनर' के आलावा शेष यगण, तगण मगण आदि तुलसी, बिहारी, कबीर आदि ने भी रखे हैं. 'सनर' का परामर्श भानु जी ने नवोदितों के लिए दिया है. मैं एक सतसई उन्हीं दोनों की तैयार कर रहा हूँ जिनमें 'सनर' बंधन न हो. किसी एक रचनाकार की अनुशंसा दोहा को बंदी नहीं बना सकती. भानु जी ने भी अन्य गण वर्जित नहीं बताए हैं. यह व्याख्या परवर्ती दोहकारों ने थोप दी है. मैं इसे अस्वीकार करता हूँ.

कवि राजवीर सिकरवार- स्वर अवरोध व प्रवाह सही करने के लिए तो करना आवश्यक है, अन्यथा आपका सृजन है, जैसा करें । आगे पीछे कौन क्या लिख गया है, इसे छोड़ कर,हम धारा प्रवाह लिखने का संदेश देने का प्रयास करें,जय श्री कृष्ण ।

सलिल- मुझे इसे पढ़ने में न तो स्वर अवरोध प्रतीत होता है, न प्रवाह रुद्ध होता है. ऐसा होता तो तुलसी, कबीर, बिहारी और अन्य महान दोहकारों ने बीसियों दोहों में यह गण न रख होता. छंद प्रभाकर में कई छंदों में अनावश्यक बंधन थोपने का दुष्प्रभाव है कि उसके बाद हिंदी में छंद शास्त्र की एनी मौलिक पुस्तक नहीं आ सकी. जो भी पुस्तकें आईं वे छंद प्रभाकर को आधार बना कर ही लिखी गईं. किसी विषय का विकास उसमें नव प्रयोगों से होता है. लीक पीटने मात्र से नहीं.

कवि राजवीर सिकरवार जिया जिया में ले बसा, / कर के पढ़ें आदरणीय । संगीत का जानकार ही इसे समझ सकता है । पता नहीं आपका संगीत कैसा है ।

सलिल'- क्यों? यह तो मैं कर सकता था, किन्तु 'सनर' की झूठी बाध्यता को ही तोड़ना है. एक सतसई ही लिख रहा हूँ जिसमें विषम चरणान्त में 'सनर' को छोड़ शेष ५ गण होंगे. सभी दोहे गेय और लय में होंगे. यह तो मैं भी कह सकता हूँ कि आपका संगीत पता नहीं कैसा है जो तुलसी, कबीर और बिहारी के दोहों को नहीं पचा पाता .

आचार्य प्रताप- हो सकता मुझे कम जानकारी हो किन्तु इतना तो कह सकता हूँ कि इस दोहे में लय बंधित है #आचार्य_महोदय

ये बात तो कह सकता हूँ कि जो व्यक्ति बनाए गए रास्ते पर चलता है वह कुछ नहीं कर सकता किन्तु जो राह बनाता है वह ही नाम कमाता है। आपका तथ्य सही है कि आप ऐसे सात सौ दोहे तैयार कर रहे हैं।हर्ष का अनुभव कर रहा हूँ।
हो सकता है आगे ऐसा लिखा जा सके। मैं अल्पज्ञ हूँ #सनर। का अर्थ नही समझ पा रहा हूँ कृपया प्रकाश डालिए। आचार्य संजीव वर्मा 'सलिल' जी व आचार्य कवि राजवीर सिंह भारती जी।। शुभम् अस्तु ।।
सतसईं को लक्ष्य बना, दोहे लिखो हजार।
यति-गति लय अरु नियम का , ध्यान रखो तुम यार।।
डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- राहुल प्रताप सिंहः प्रताप जी, आपका प्रथम चरण भी लय-बाधित है। इसे 'लक्ष्य सतसई को बना' अथवा 'लक्ष्य बनाकर सतसई' कर सकते हैं ! लय तभी शुद्ध हो सकती है जब त्रिकल के बाद त्रिकल का प्रयोग हो !

आचार्य प्रताप- लक्ष्य सतसई को बना, दोहे लिखो हजार।
यति-गति लय अरु नियम का , ध्यान रखो तुम यार।।... आभार रहेगा आपका आदरणीय

डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- 'यार' शब्द अच्छा नहीं लगता, 'तुम यार' के स्थान पर 'हर बार' कैसा रहेगा ? 'अरु' शब्द ब्रजभाषा का है, जो खड़ी बोली की रचना में फिट नहीं बैठता । इसके स्थान पर 'और' का लघु रूप औ' मान्य है। 'यति-गति-लय के नियम का' भी कर सकते हैं।

आचार्य प्रताप- औ' शब्द अधिकाधिक उर्दू भाषा में प्रयोग होने के कारण प्रयोग न ही कर रहें हैं ; बहुत से साहित्यकारों का मानना है।

डॉ. ब्रह्मजीत गौतम- राहुल प्रताप सिंह प्रताप जी, उर्दू में औ' नहीं ओ प्रचलित है -- रंज-ओ-ग़म = रंजोग़म, शान-ओ-शौकत = शानोशौक़त, रदीफ़-ओ-क़ाफ़िया = रदीफ़ोक़ाफ़िया आदि।

श्रीधर प्रसाद द्विवेदी- लय जब बनती हो सुघर, लघु गुरु का क्या भेद। / दोहा दोहा ही लगे, कोई कहीं न खेद।।
संजीव वर्मा 'सलिल'- सहमत हूँ. दोहा के दो अनिवार्य तत्व कथ्य और लय हैं. शेष नियम इन दोनों को साधने के लिए सुझाए गए हैं. दोहे के २३ प्रकार एक ही लय में नहीं हैं. 'जिया जिया में बसा ले' में लय भंग नहीं है तो चरणांत में गण परिवर्तन का आग्रह बेमानी है. सिर्फ इसलिए कि किसी अन्य को यह लय पसंद नहीं. मैं शीर्ष दोहाकारों के अनेक कालजायी दोहे बता सकता हूँ जिनमें यह गण विधान और लय है.

श्रीधर प्रसाद द्विवेदी जी, सहमत।

Binu Bhatnagar- आपकी व्याख्या तो समझ मे नहीं आई परंतु दोहे मे दोष नहीं है ये पढ़ कर लय से पता चल जाता है।

संजीव वर्मा 'सलिल'- मेरा नम्र निवेदन भी यही है कि दोहे के विषम चरण के अंत में आठों गण में से किसी को भी रखकर ठीक लय में दोहा कहा जा सकता है.

Binu Bhatnagar- आपका कहने का अर्थ यह है कि सिर्फ पहले गण सही हों चरण के अंत मे लघु दीर्घ अनिवार्य नहीं है।

संजीव वर्मा 'सलिल'- नहीं विषम चरण के अंत पर चर्चा है. १३३ मात्रिक विषम चरण के अंत में सगण, रगण या नगण रखने का परामर्श जगन्नाथ प्रसाद 'भानु' ने छंद प्रभाकर में दिया है किन्तु अन्य गण न रखें, यह वर्जना नहीं की है. भानु के पहले और बाद में भी अनेक दोहाकारों ने विषम चरण के अंत में अन्य गण (यगण, मगण, तगण जगण, भगण) का प्रयोग किया है और लय भिन्न तो हुई भंग नहीं हुई है. गुरु लघु की अनिवार्यता सम चरण (ग्यारह मात्रिक) के अंत में है. उस पर चर्चा नहीं है. मित्रों को आपत्ति 'जिया जिया में बसा ले' पर है. वे कहते हैं इसमें दोष है जो 'जिया जिया में ले बसा' करने पर दूर हो जाता है. मेरी इससे असहमति है. आप ही बताएँ 'जिया जिया में बसा मे' में लय कहाँ और कैसे भंग होती है?

Binu Bhatnagar- यगण सगण मुझे याद नही रहते पर पहले और तीसरे चरण के अंत में लघु दीर्घ रखना है और दूसरे व चौथे के अंत में दीर्घ लघु। चरण के शुरुआत के नियम मुझे याद नहीं रहते लय के अनुसार करती हूँ पहले ग़लतियां होती थी अब ठीक बैठते है। मैं मात्रा गिनकर दोहा नहीं बनाती, दोहा बनाकर मात्रा गिनती हूँ ९९% से ज्यादा ठीक ही रहती है ये तकनीक।

Trivendra Dhar Badgaiyan- दोहा लिखते जाइए, है अद्भुत यह छंद।/ बड़ी बात कह देत है, शब्द लगें बस चंद।

Binu Bhatnagar- दोहे अति प्रिय हैं मुझे, दोहों में हो सार, / इच्छा मेरी है कभी, हो सतसइ तैयार।आचार्य प्रताप #दोहा- लक्ष्य सतसई को बना, दोहे लिखो हजार।/ यति-गति लय अरु नियम का , ध्यान रखो तुम यार।।

Binu Bhatnagar- अवश्य शुक्रियाSantosh Shukla- बहुत ही सुंदर प्रस्तुति

लक्ष्मण लड़ीवाला 'रामानुज'- सुंदर और सार्थक दोहा । वाह !

जिया जिया में जिया ले,दोहा जीवन छन्द। / दोहो में जीता नही, वह कैसा कवि-वृन्द।।

श्यामल सिन्हा- सही में,, दिन दूनी हो प्रीत, बहुत सुन्दर आद.
संजीव वर्मा 'सलिल'- दोहो में जिया नही १२?

लक्ष्मण लड़ीवाला 'रामानुज'- जिया जिया में जिया ले,दोहा जीवन छन्द। / दोहो में जीता नही, वह कैसा कवि-वृन्द।।
डॉराजेन्द्र गौतम- मुझे तो लगता है कि लय और छंद की बहस पर मित्रों ने व्यर्थ ही इतनी ऊर्जा नष्ट कर दी। अर्थ पर ही पहले बात करते। एक तो सारी तुकबंदिया काव्य नहीं होती, दूसरे सूक्ति में भी संगति तो कम से कम हो। कोई छंद अपुनीत भी है क्या? फिर दोहे को पुनीत कहने का औचित्य? दोहा तो एक बर्तन है। उसमें द्रव्य कुछ भी रखा जा सकता है। दोहा छंद 'जीने' से दिन दूनी प्रीत की क्या संगति है? फिर जिया वाला यमक भी बहुत जम नहीं रहा।

संजीव वर्मा 'सलिल'- हम नासमझ ऊर्जा व्यर्थ कर रहे हैं तो समझदार अपनी ऊर्जा क्यों बर्बाद कर रहा है? उसे बचा कर रखे किसी उपयुक्त अवसर के लिए. दोहा का यमक दस पाठकों को ठीक लगा, दो पाठकों को ठीक नहीं लगा, यह स्वाभाविक है उन्हें अपनी-अपनी बात कहने का अधिकार है किन्तु भिन्न मत को कमतर आँकने का नहीं.

डॉराजेन्द्र गौतम- सलिल जी, नाराज़ होने की अपेक्षा जिज्ञासा शांत करते तो बेहतर होता। बिहारी का "पर्यो ज़ोर विपरीत...." वाला दोहा कितना पुनीत है? व्याकरणिक मसले दो और दस की वोटिंग से थोड़े तय होंगे।

संजीव वर्मा 'सलिल'- यही तो मैं भी निवेदन कर रहा हूँ मान्यवर! कि दोहा में विषम चरण की ग्यारहवीं मात्रा लघु रखने का निर्णय मुझ पर क्यों लादा जा रहा है? जब कबीर, तुलसी और बिहारी के ५० से अधिक दोहे इसे मानक नहीं मानते तो मुझे क्यों विवश किया जाए?

Abhigyan Shakuntalam- वाहहह

Dr-Nirupama Varma- आपके दोहे अविस्मरणीय होते हैं।

संजीव वर्मा 'सलिल'- आपकी संगत का प्रभाव है।

Dr-Nirupama Varma- संजीव वर्मा 'सलिल' यही विनम्रता तो आपको सबसे अलग करती है।

संजीव वर्मा 'सलिल'- Dr-Nirupama Varma और आपके निकट ।

डॉ दीपिका महेश्वरी 'सुमन' बहुत सुन्दर।]

दोहा-दोहा विरासत:
संत कबीर दास
*
इस स्तंभ के अंतर्गत कुछ अमर दोहकारों के कालजयी दोहे प्रस्तुत किये जा रहे हैं जिनमें विषम चरण के अंत में 'सरन' के अतिरिक्त ने गण प्रयोग में लाए गए हैं. किसी एक पिंगल ग्रंत्ज की मान्यता के आधार पर क्या हम अपनी विरासत में मिले इन अमूल्य दोहा-रत्नों को ख़ारिज कर दें या इस परंपरा को स्वीकारते हुए आगे बढ़ाएं? विचार करें, अपने अभिमत के पक्ष में तर्क भी दें किन्तु अन्य के अभिमत को ख़ारिज न करें ताकि स्वस्थ्य विचार विनिमय और सृजन हो सके.
*
कबीर रोड़ा होइ रहु बात का, तजि मनु का अभिमान.
ऐसा कोई दासु होइ, ताहि मिलै भगवानु. विषम चरण पदांत जगण
*
कबीर पालि समूह सरवरु भरा, पी न सकै कोइ नीर.
भाग बड़े तो पाइ यो तू, भरि-भरि पीउ कबीर. विषम चरण पदांत यगण
*
कबीर मुद्धा मुनारे किया, चढ़हि साईं न बहिरा होइ.
जा कारण तू बाग़ देहि, दिल्ही भीतर जोइ. विषम चरण पदांत जगण
*
कबीर मनु जानै सब बात, जानत ही अवगुन करै.विषम चरण पदांत जगण
काहे की कुसलात, हाथ दीप कूए परै. विषम चरण पदांत जगण
*
कबीर ऐसा बीज बोइ, बारह मास फलंत. विषम चरण पदांत जगण
सीतल छाया गहिर फल, पंखी कल करंत.
*
हरि हैं खांडु रेत महि बिखरी, हाथी चुनी न जाइ.
कह कबीर गुरु भली बुझाई, चीटी होइ के खाइ. विषम चरण पदांत यगण
*
संत तुलसीदास
गिरत अंड संपुट अरुण, जमत पक्ष अन्यास.
आल सुबान उपदेस केहि, जात सु उलटि अकास.विषम चरण पदांत जगण
*
रावण रावण को हन्यो, दोष राम कह नाहिं. विषम चरण पदांत मगण
निज हित अनहित देखू किन, तुलसी आपहिं माहिं.
*
रोम-रोम ब्रम्हांड बहु, देखत तुलसी दास.
बिन देखे कैसे कोऊ, सुनी माने विश्वास. विषम चरण पदांत मगण
*
मात-पिता निज बालकहि करहिं इष्ट उपदेश.
सुनी माने विधि आप जेहि, निज सिर सहे कलेश.विषम चरण पदांत जगण
*
बिहारी
पत्रा ही तिथि पाइये वा, घर कैं चहुँ पास. विषम चरण पदांत यगण
नित प्रति पून्याईं रहै, आनन ओप-उजास.
*
रहति न रन जयसाहि-सुख, लखि लाखनु की फ़ौज.
जाँचि निराखरऊ चलै लै, लाखन की मौज. विषम चरण पदांत यगण
*
सीस-मुकुट कटि-काछनी, कर-मुरली उर-माल.
इहिं बानक मो मम सिद्धा, बसौ, बिहारी लाल. विषम चरण पदांत यगण
*
कहै यहै श्रुति सुमृत्यौ, यहै सयाने लोग. विषम चरण पदांत यगण
तीन दबवात निस कही, पातक रजा रोग.
*
संजीव वर्मा 'सलिल'- ऐसे अनेक दोहे और उनके स्वनामधन्य दोहाकारों का अनुसरण करते हुए मैंने अपने दोहे रचे हैं. इन्हें गलत मानने की जुर्रत मैं नहीं कर सकता. इन्हें गलत कहनेवाले खुद कितने बड़े दोहाकार हैं, यह आकलन समय कर ही देगा. किसी दोहा में सामान्य मानक का पालन और कथ्य दोनों में से एक चुनना हो तो कथ्य को नहीं छोड़ना चाहिए. यही उक्त दोहों का सन्देश है, और यही मैंने किया है.
४.५.२०१८
***
नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
***
नवगीत
*
शीशमहल में बैठ
हाथ में पत्थर ले,
एक-दूसरे का सिर
फोड़ रहे चतुरे।
*
गौरैयौं के प्रतिनिधि
खूनी बाज बने।
स्वार्थ हेतु मिल जाते
वरना रहें तने।
आसमान कब्जाने
हाथ बढ़ाने पर
देख न पाते
हैं दीमक लग सड़क तने।
कागा मन पर
हंस वसन पहने ससुरे।
*
कंठी माला
राम नाम का दोशाला।
फतवे जारी करें
काम कर-कर काला।
पेशी बढ़ा-बढ़ाकर
लूट मुवक्किल नित
लड़वा जुम्मन-अलगू को
लूटें खाला।
अपराधी नायक
छूटें, जाते हज रे।
*
सरहद पर
सर हद से ज्यादा कटे-गिरे।
नेता, अफसर, सेठ-तनय
क्या कभी मरे?
भूखी-प्यासी गौ मरती
गौशाला में
व्यर्थ झगड़े झंडे
भगवा और हरे।
जिनके पाला वे ही
भार समझ मैया-
बापू को वृद्धाश्रम में
जाते तज रे।
***
नवगीत
*
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
गरमा-गरम खिला दो मैया!
ठंडा छिपकर पी लें भैया!
भूखे आम लोग रहते हैं
हम नेता
कुछ खास करें
आओ!
मिल उपवास करें......
*
पहले वे, फिर हम बैठेंगे।
गद्दे-एसी ला, लेटेंगे।
पत्रकार!
आ फोटो खींचो।
पिओ,
पिलाओ, रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
जनगण रोता है, रोने दो।
धीरज खोता है, खोने दो।
स्वार्थों की
फसलें काटें।
सत्ता
अपना ग्रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
***
उत्सव
एकाकी रह भीड़ का अनुभव है अग्यान।
छवि अनेक में एक की, मत देखो मतिमान।।
*
दिखा एकता भीड़ में, जागे बुद्धि-विवेक।
अनुभव दे एकांत का, भीड़ अगर तुम नेक।।
*
जीवन-ऊर्जा ग्यान दे, अमित आत्म-विश्वास।
ग्यान मृत्यु का निडरकर, देता आत्म-उजास।।
*
शोर-भीड़ हो चतुर्दिक, या घेरे एकांत।
हर पल में उत्सव मना, सज्जन रहते शांत।।
*
जीवन हो उत्सव सदा, रहे मौन या शोर।
जन्म-मृत्यु उत्सव मना, रहिए भाव-विभोर।।
१२.४.२०१८
***
नवगीत
जोड़-तोड़ है
मुई सियासत
*
मेरा गलत
सही है मानो।
अपना सही
गलत अनुमानो।
सत्ता पाकर,
कर लफ्फाजी-
काम न हो तो
मत पहचानो।
मैं शत गुना
खर्च कर पाऊँ
इसीलिए तुम
करो किफायत
*
मैं दो दूनी
तीन कहूँ तो
तुम दो दूनी
पाँच बताना।
मैं तुमको
झूठा बोलूँगा
तुम मुझको
झूठा बतलाना।
लोकतंत्र में
लगा पलीता
संविधान से
करें बगावत
*
यह ले उछली
तेरी पगड़ी।
झट उछाल तू
मेरी पगड़ी।
भत्ता बढ़वा,
टैक्स बढ़ा दें
लड़ें जातियाँ
अगड़ी-पिछड़ी।
पा न सके सुख
आम आदमी,
लात लगाकर
कहें इनायत।
11.4.2018
***
नवगीत
*
शीशमहल में बैठ
हाथ में पत्थर ले,
एक-दूसरे का सिर
फोड़ रहे चतुरे।
*
गौरैयौं के प्रतिनिधि
खूनी बाज बने।
स्वार्थ हेतु मिल जाते
वरना रहें तने।
आसमान कब्जाने
हाथ बढ़ाने पर
देख न पाते
हैं दीमक लग सड़क तने।
कागा मन पर
हंस वसन पहने ससुरे।
*
कंठी माला
राम नाम का दोशाला।
फतवे जारी करें
काम कर-कर काला।
पेशी बढ़ा-बढ़ाकर
लूट मुवक्किल नित
लड़वा जुम्मन-अलगू को
लूटें खाला।
अपराधी नायक
छूटें, जाते हज रे।
*
सरहद पर
सर हद से ज्यादा कटे-गिरे।
नेता, अफसर, सेठ-तनय
क्या कभी मरे?
भूखी-प्यासी गौ मरती
गौशाला में
व्यर्थ झगड़े झंडे
भगवा और हरे।
जिनके पाला वे ही
भार समझ मैया-
बापू को वृद्धाश्रम में
जाते तज रे।
*
12.4.2018
***
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
गरमा-गरम खिला दो मैया!
ठंडा छिपकर पी लें भैया!
भूखे आम लोग रहते हैं
हम नेता
कुछ खास करें
आओ!
मिल उपवास करें......
*
पहले वे, फिर हम बैठेंगे।
गद्दे-एसी ला, लेटेंगे।
पत्रकार!
आ फोटो खींचो।
पिओ,
पिलाओ, रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
जनगण रोता है, रोने दो।
धीरज खोता है, खोने दो।
स्वार्थों की
फसलें काटें।
सत्ता
अपना ग्रास करें
आओ!
मिल उपवास करें.....
*
12.4.2018
***
उत्सव
एकाकी रह भीड़ का अनुभव है अग्यान।
छवि अनेक में एक की, मत देखो मतिमान।।
*
दिखा एकता भीड़ में, जागे बुद्धि-विवेक।
अनुभव दे एकांत का, भीड़ अगर तुम नेक।।
*
जीवन-ऊर्जा ग्यान दे, अमित आत्म-विश्वास।
ग्यान मृत्यु का निडरकर, देता आत्म-उजास।।
*
शोर-भीड़ हो चतुर्दिक, या घेरे एकांत।
हर पल में उत्सव मना, सज्जन रहते शांत।।
*
जीवन हो उत्सव सदा, रहे मौन या शोर।
जन्म-मृत्यु उत्सव मना, रहिए भाव-विभोर।।
*
12.4.2018
***
मुक्तक:
*
मन सागर, मन सलिला भी है, नमन अंजुमन विहँस कहें
प्रश्न करे यह उत्तर भी दे, मन की मन में रखेँ-कहें?
शमन दमन का कर महकाएँ चमन, गमन हो शंका का-
बेमन से कुछ काम न करिए, अमन-चमन 'सलिल' में रहे
*
तेरी निंदिया सुख की निंदिया, मेरी निंदिया करवट-करवट”
मेरा टीका चौखट-चौखट, तेरी बिंदिया पनघट-पनघट
तेरी आसें-मेरी श्वासें, साथ मिलें रच बृज की रासें-
तेरी चितवन मेरी धड़कन, हैं हम दोनों सलवट-सलवट
*
बोरे में पैसे ले जाएँ, संब्जी लायें मुट्ठी में
मोबाइल से वक़्त कहाँ है, जो रुचि ले युग चिट्ठी में
कुट्टी करते घूम रहे हैं सभी सियासत के मारे-
चले गये वे दिन जब गले मिले हैं संगा मिट्ठी में
*
नहीं जेब में बचीं छदाम, खास दिखें पर हम हैँ आम
कोई तो कविता सुनकर, तनिक दाद दे करे सलाम
खोज रहीं तन्मय नज़रें, कहाँ वक़्त का मारा है?
जिसकी गर्दन पकड़ें हम फ़िर चकेवा दें बिल बेदाम
*
छंद सलिला:
दृढ़पद (दृढ़पत/उपमान) छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, यति १३ - १०, चरणान्त गुरु गुरु (यगण, मगण) ।
लक्षण छंद:
तेईस मात्रा प्रति चरण / दृढ़पद रचें सुजान
तेरह-दस यति अन्त में / गुरु गुरु- है उपमान
कथ्य भाव रस बिम्ब लय / तत्वों का एका
दिल तक सीधे पहुँचता / लगा नहीं टेका
उदाहरण:
१. हरि! अवगुण से दूरकर / कुछ सद्गुण दे दो
भक्ति - भाव अर्पित तुम्हें / दिक् न करो ले लो
दुनियादारी से हुआ / तंग- शरण आया-
एक तुम्हारा आसरा / साथ न दे साया
२. स्वेद बिन्दु से नहाकर / श्रम से कर पूजा
फल अर्पित प्रभु को करे / भक्त नहीं दूजा
काम करो निष्काम सब / बतलाती गीता
जो आत्मा सच जानती / क्यों हो वह भीता?
३. राम-सिया के रूप हैं / सच मानो बच्चे
बेटी-बेटे में करें / फर्क नहीं सच्चे
शक्ति-लक्ष्मी-शारदा / प्रकृति रूप तीनो
जो न सत्य पहचानते / उनसे हक़ छीनो
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपमान, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, दृढ़पद, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
४-५-२०१४
***
छंद सलिला: हरि छंद
*
छंद-लक्षण: जाति रौद्राक, प्रति चरण मात्रा २३ मात्रा, चरणारंभ गुरु, यति ६ - ६ - ११, चरणान्त गुरु लघु गुरु (रगण) ।
लक्षण छंद:
रास रचा / हरि तेइस / सखा-सखी खेलते
राधा की / सखियों के / नखरे हँस झेलते
गुरु से शुरु / यति छह-छह / ग्यारह पर सोहती
अंत रहे / गुरु लघु गुरु / कला 'सलिल' मोहती
उदाहरण:
१. राखो पत / बनवारी / गिरधारी साँवरे
टेर रही / द्रुपदसुता / बिसरा मत बावरे
नंदलाल / जसुदासुत / अब न करो देर रे
चीर बढ़ा / पीर हरो / मेटो अंधेर रे
२. सीता को / जंगल में / भेजा क्यों राम जी?
राधा को / छोड़ा क्यों / बोलो कुछ श्याम जी??
शिव त्यागें / सती कहो / कैसे यह ठीक है?
नारी भी / त्यागे नर / क्यों न उचित लीक है??
३. नेता जी / भाषण में / जो कुछ है बोलते
बात नहीं / अपनी क्यों / पहले वे तोलते?
मुकर रहे / कह-कहकर / माफी भी माँगते
देश की / फ़िज़ां में / क्यों नफरत घोलते?
४. कौन किसे / बिना बात / चाहता-सराहता?
कौन जो न / मुश्किलों से / आप दूर भागता?
लोभ, मोह / क्रोध द्रोह / छोड़ सका कौन है?
ईश्वर से / कौन और / अधिक नहीं माँगता?
*********
(अब तक प्रस्तुत छंद: अखण्ड, अग्र, अचल, अचल धृति, अरुण, अहीर, आर्द्रा, आल्हा, इंद्रवज्रा, उड़ियाना, उपेन्द्रवज्रा, उल्लाला, एकावली, कुकुभ, कज्जल, कामिनीमोहन, कीर्ति, कुण्डल, कुडंली, गंग, घनाक्षरी, चौबोला, चंडिका, चंद्रायण, छवि, जाया, तांडव, तोमर, त्रिलोकी, दीप, दीपकी, दोधक, नित, निधि, प्लवंगम्, प्रतिभा, प्रदोष, प्रभाती, प्रेमा, बाला, भव, भानु, मंजुतिलका, मदनअवतार, मधुभार, मधुमालती, मनहरण घनाक्षरी, मनमोहन, मनोरम, मानव, माली, माया, माला, मोहन, योग, ऋद्धि, रसामृत, राजीव, राधिका, रामा, लीला, वाणी, विशेषिका, शक्तिपूजा, शशिवदना, शाला, शास्त्र, शिव, शुभगति, सरस, सार, सिद्धि, सुगति, सुजान, हरि, हेमंत, हंसगति, हंसी)
***
दोहा गाथा : २.ललित छंद दोहा अमर
*
ललित छंद दोहा अमर, भारत का सिरमौर.
हिन्दी माँ का लाड़ला, इस सा छंद न और.
देववाणी संस्कृत तथा लोकभाषा प्राकृत से हिन्दी को गीति काव्य का सारस्वत कोष विरासत में मिला। दोहा विश्ववाणी हिन्दी के काव्यकोश का सर्वाधिक मूल्यवान रत्न है। दोहा का उद्गम संस्कृत से है। नारद रचित गीत मकरंद में कवि के गुण-धर्म वर्णित करती निम्न पंक्तियाँ वर्तमान दोहे के निकट हैं-
शुचिर्दक्षः शान्तः सुजनः विनतः सूनृत्ततरः।
कलावेदी विद्वानति मृदुपदः काव्य चतुरः।।
रसज्ञौ दैवज्ञः सरस हृदयः सतकुलभवः।
शुभाकारश्ददं दो गुण विवेकी सच कविः।।
अर्थात-
नम्र निपुण सज्जन विनत, नीतिवान शुचि शांत।
काव्य-चतुर मृदु पद रचें, कहलायें कवि कान्त।।
जो रसज्ञ-दैवज्ञ हैं, सरस हृदय सुकुलीन।
गुणी विवेकी कुशल कवि, का यश हो न मलीन।।
काव्य शास्त्र है पुरातन :
काव्य शास्त्र चिर पुरातन, फिर भी नित्य नवीन।
झूमे-नाचे मुदित मन, ज्यों नागिन सुन बीन।।
लगभग ३००० साल प्राचीन भारतीय काव्यशास्त्र के अनुसार काव्य ऐसी रचना है जिसके शब्दों-अर्थों में दोष कदापि न हों, गुण अवश्य हों चाहे अलंकार कहीं-कहीं पर भी न हों१। दिग्गज काव्याचार्यों ने काव्य को रमणीय अर्थमय२ चित्त को लोकोत्तर आनंद देने में समर्थ३, रसमय वाक्य४, काव्य को शोभा तथा धर्म को अलंकार५, रीति (गुणानुकूल शब्द विन्यास/ छंद) को काव्य की आत्मा६, वक्रोक्ति को काव्य का जीवन७, ध्वनि को काव्य की आत्मा८, औचित्यपूर्ण रस-ध्वनिमय९, कहा है। काव्य (ग्रन्थ} या कविता (पद्य रचना) श्रोता या पाठक को अलौकिक भावलोक में ले जाकर जिस काव्यानंद की प्रतीति कराती हैं वह वस्तुतः शब्द, अर्थ, रस, अलंकार, रीति, ध्वनि, वक्रोक्ति, वाग्वैदग्ध्य, तथा औचित्य की समन्वित-सम्मिलित अभिव्यक्ति है।
दोहा उतम काव्य है :
दोहा उत्तम काव्य है, देश-काल पर्याय।
राह दिखाता मनुज को, जब हो वह निरुपाय।।
आरम्भ में हर काव्य रचना 'दूहा' (दोहा) कही जाती थी१०। फिर संस्कृत के द्विपदीय श्लोकों के आधार पर केवल दो पंक्तियों की काव्य रचना 'दोहड़ा' कही गयी। कालांतर में संस्कृत, पाली, प्राकृत, अपभ्रंश भाषाओं की पूर्वपरता एवं युगपरकता में छंद शास्त्र के साथ-साथ दोहा भी पला-बढ़ा।
दोहा छंद अनूप :
जन-मन-रंजन, भव-बाधा-भंजन, यश-कीर्ति-मंडन, अशुभ विखंडन तथा सर्व शुभ सृजन में दोहा का कोई सानी नहीं है। विश्व-वांग्मय का सर्वाधिक मारक-तारक-सुधारक छंद दोहा छंद शास्त्र की अद्भुत कलात्मक देन है११।
नाना भाषा-बोलियाँ, नाना जनगण-भूप।
पंचतत्व सम व्याप्त है, दोहा छंद अनूप।।
दोग्ध्क दूहा दूहरा, द्विपदिक दोहअ छंद।
दोहक दूहा दोहरा, दुवअह दे आनंद।।
द्विपथा दोहयं दोहड़ा, द्विपदी दोहड़ नाम।
दुहे दोपदी दूहड़ा, दोहा ललित ललाम।।
दोहा मुक्तक छंद है :
संस्कृत वांग्मय के अनुसार 'दोग्धि चित्तमिति दोग्धकम्' अर्थात जो श्रोता/पाठक के चित्त का दोहन करे वह दोग्धक (दोहा) है किंतु हिन्दी साहित्य का दोहा चित्त का ही नहीं वर्ण्य विषय के सार का भी दोहन करने में समर्थ है१२। दोहा अपने अस्तित्व-काल के प्रारम्भ से ही लोक परम्परा और लोक मानस से संपृक्त रहा है१३। संस्कृत साहित्य में बिना पूर्ववर्ती या परवर्ती प्रसंग के एक ही छंद में पूर्ण अर्थ व चमत्कार प्रगट करनेवाले अनिबद्ध काव्य को मुक्तक कहा गया है- ' मुक्तक श्लोक एवैकश्चमत्कारः क्षमः सतां'। अभिनव गुप्त के शब्दों में 'मुक्ता मन्यते नालिंकित तस्य संज्ञायां कन। तेन स्वतंत्रया परिसमाप्त निराकांक्षार्थमपि, प्रबंधमध्यवर्ती मुक्तक मिनमुच्यते'।
हिन्दी गीति काव्य के अनुसार मुक्तक पूर्ववर्ती या परवर्ती छंद या प्रसंग के बिना चमत्कार या अर्थ की पूर्ण अभिव्यक्ति करनेवाला छंद है। मुक्तक का प्रयोग प्रबंध काव्य के मध्य में भी किया जा सकता है। रामचरित मानस महाकाव्य में चौपाइयों के बीच-बीच में दोहा का प्रयोग मुक्तक छंद के रूप में सर्व ज्ञात है। मुक्तक काव्य के दो भेद १. पाठ्य (एक भावः या अनुभूति की प्रधानता यथा कबीर के दोहे) तथा गेय (रागात्मकता प्रधान यथा तुलसी के दोहे) हैं।
छंद :
अक्षर क्रम संख्या तथा, गति-यति के अनुसार।
छंद सुनिश्चित हो 'सलिल', सही अगर पदभार।।
छंद वह साँचा या ढाँचा है जिसमें ढलने पर ही शब्द कविता कहलाते हैं। छंद कविता का व्याकरण तथा अविच्छेद्य अंग है। छंद का जन्म एक विशिष्ट क्रम में वर्ण या मात्राओं के नियोजन, गति (लय) तथा यति (विराम) से होता है। वर्णों की पूर्व निश्चित संख्या एवं क्रम, मात्र तथा गति-यति से सम्बद्ध विशिष्ट नियोजित काव्य रचना छंद कहलाती है।
दोहा :
दोहा दो पंक्तियों (पदों) का मुक्तक काव्य है। प्रत्येक पद में २४ मात्राएँ होती हैं। हर पद दो चरणों में विभाजित रहता है। विषम (पहले, तीसरे) चरण में तेरह तथा सम (दूसरे, चौथे) चरण में ग्यारह कलाएँ (मात्राएँ) होना अनिवार्य है।
दोहा और शेर :
दोहा की अपने आप में पूर्ण एवं स्वतंत्र होने की प्रवृत्ति कालांतर में शे'र के रूप में उर्दू काव्य में भिन्न भावः-भूमि में विकसित हुई। दोहा और शे'र दोनों में दो पंक्तियाँ (पद) होती हैं, किंतु 'शे'र में चुलबुलापन होता है तो दोहा में अर्थ गौरव'१४। शेर बहर (उर्दू छंद) में कहे जाते हैं जबकि दोहा कहते समय हिन्दी के 'गण' (रुक्न) संबंधी नियमों का ध्यान रखना होता है। शे'रों का वज़्न (पदभार) भिन्न हो सकता है किंतु दोहा में पदभार हमेशा समान होता है। शे'र में पद (पंक्ति या मिसरा) का विभाजन एक सा नहीं होता जबकि दोहा के दोनों पद दो-दो चरणों में निर्धारित स्थान पर यति (विराम) द्वारा विभक्त होते हैं।
हमने अब तक भाषा, व्याकरण, वर्ण, स्वर, व्यंजन, तथा शब्द को समझने के साथ दोहा की उत्पत्ति लगभग ३००० वर्ष पूर्व संस्कृत, अपभ्रंश व् प्राकृत से होने तथा मुक्तक छंद की जानकारी ली। दोहा में दो पद, चार चरण तथा सम चरणों में १३-१३ और विषम चरणों में ११-११ मात्राएँ होना आवश्यक है। दोहा व शेर के साम्य एवं अन्तर को भी हमने समझा। अगले पाठ में हम छंद के अंगों, प्रकारों, मात्राओं तथा गण की चर्चा करेंगे। तब तक याद रखें-
भाषा-सागर मथ मिला, गीतिकाव्य रस कोष।
समय शंख दोहा करे, सदा सत्य का घोष।।
गीति काव्य रस गगन में, दोहा दिव्य दिनेश।
अन्य छंद शशि-तारिका, वे सुर द्विपदि सुरेश।।
गौ भाषा को दूह कर, कवि कर अमृत पान।
दोहों का नवनीत तू, पाकर बन रसखान।।
सन्दर्भ :
१. तद्दोशौ शब्दार्थो सगुणावनलंकृति पुनः क्वापि -- मम्मट, काव्य प्रकाश,
२. रमणीयार्थ प्रतिपादकः शब्दः काव्यम -- पं. जगन्नाथ,
३. लोकोत्तरानंददाता प्रबंधः काव्यनामभाक -- अम्बिकादत्त व्यास,
४. रसात्मकं वाक्यं काव्यं -- महापात्र विश्वनाथ,
५. काव्यशोभाकरान धर्मान अलंकारान प्रचक्षते -- डंडी, काव्यादर्श,
६. रीतिरात्मा काव्यस्य -- वामन, ९०० ई., काव्यालंकार सूत्र,
७. वक्रोक्तिः काव्य जीवितं -- कुंतक, १००० ई., वक्रोक्ति जीवित,
८. काव्यस्यात्मा ध्वनिरितिः, आनंदवर्धन, ध्वन्यालोक,
९. औचित्यम रस सिद्धस्य स्थिरं काव्यं जीवितं -- क्षेमेन्द्र, ११०० ई., औचित्य विचार चर्चा,
१०. बरजोर सिंह 'सरल', हिन्दी दोहा सार, पृ. ३०,
११. आचार्य पूनम चाँद तिवारी, समीक्षा दृष्टि, पृ. ६४,
१२. डॉ. नागेन्द्र, हिन्दी साहित्य का इतिहास, पृ. ७७,
१३. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र' की भूमिका - शब्दों के संवाद- आचार्य भगवत दुबे,
१४. डॉ. देवेन्द्र शर्मा 'इन्द्र', भूमिका- जैसे, हरेराम 'समीप'.
४-५-२०१३
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